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पूजन-पाठ मे कि गई गलतियों के भयंकर दुष्‍परिणाम

श्रद्धा से पहले ज्ञान जरूरी है।
अनर्थकारी एवं अशुभ होता है मनमाने ढंग से मूर्तियों एवं तस्वीरों को घर में रखना।

घर में दो शिवलिंग, तीन गणेशजी, दो शंख, दो सूर्य, तीन दुर्गामूर्ति, दो शालीग्रामजी होने से गृहस्थ मनुश्य को दुख एवं अशान्ति प्राप्त होती है। (आचारप्रकाश, आचारेन्दु)।

घर में टूटी-फूटी अथवा अग्नि से जली हुई प्रतिमा की पूजा नहीं करना चाहिए। ऐसी मूर्ति की पूजा करने से गृहस्थस्वामी के मन में उद्वेग या अनिश्ट होता है।(वराहपुराण 186/43)।

घर में अंगूठे के पर्व से लेकर एक बित्ता परिमाण की ही प्रतिमा होनी चाहिए। इससे बडी प्रतिमा होने से घर में अशुभ होता है। (मत्स्यपुराण 258/22)।

पूजन-पाठ के नियम जाने बिना पूजन करना अर्थात् व्यर्थ की मेहनत करना

स्नान किये बिना जो पुण्यकर्म किया जाता है, वह निश्फल होता है। उसे राक्षस ग्रहण कर लेते हैं। वाधूलस्मृति 69
बिना तिलक के जो भी सत्कर्म किया जाता वह सफल नहीं हो पाता। ... प्रयोगपारिजात।
पूजन के पश्चात् यदि दो आचमनी जल आसन के नीचे छोडकर नेत्रों पर नहीं लगाया जाए तो उसका फल इन्द्र देवता ले लेते हैं।
गीले वस्त्रों पहनकर अथवा दोनों हाथ घुटनों से बाहर करके जो जप, होम, और दान किया जाता है, वह सब निश्फल हो जाता है। ......लिखितस्मृति 63
चांदी पितरों को तो परमप्रिय है, पर देवकार्य में इसे अशुभ माना गया है। इसलिए देवकार्य में चांदी को दूर रखना चाहिए। मत्स्यपुराण 17/23, निर्णयसिंधु 1
तांबा मंगलस्वरूप, पवित्र एवं भगवान को बहुत प्रिय है। तांबे के पात्र में रखकर जो वस्तु भगवान को अर्पण की जाती है, उससे भगवान को बडी प्रसन्नता होती है। इसलिए भगवान को जल आदि वस्तुऐं तांबे के पात्र में रखकर अर्पण करनी चाहिए। - वराहपुराण 129/41-42, -52
नील, लाल, अथवा काला वस्त्र पहनकर और बिना धोया हुआ वस्त्र पहनकर भगवान विश्णु की उपासना करने वाला दोशी माना जाता है और उसका पतन होता हैं। वराहपुराण 135/1, 15-16, 23-24
तुलसी से गणेशजी की एवं दूर्वा या दूब से दुर्गाकी पूजा नहीं करनी चाहिए। पद्मपुराण, उत्तर 92/25-27
सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण के समय भोजन करनेवाला मनुश्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्शों तक अरून्तुद नरक में वास करता है। फिर वह उदररोग से पीडित मनुश्य होता है। फिर गुल्मरोगी, काना, और दन्तहीन होता है। -देवीभागवत 9/35/11-13, आपस्तम्बस्मृति 9/28
पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, सूर्यसंक्रांति, मध्याहनकाल, रात्रि, दोनों सन्ध्याऐं, अशौच के समय, रात में सोने के पश्चात् बिना स्नान किये, इन समयों मे जो मनुश्य तुलसी के पत्तों को तोडते हैं, वह मानो भगवान श्रीहरि के मस्तक का छेदन करते हैं। -ब्रहमवैवर्तपुराण, प्रकृति. 21/50-51
लक्ष्मी की इच्छा रखनेवाले को रात्री में दही और सत्तू नहीं खाना चाहिए। यह नरक की प्राप्ति करानेवाला है। -महाभारत अनु. 104/93

नवरात्री मे कन्या पूजन की आयु का निर्णय :
नवरात्री में 2 वर्श से लेकर 10 वर्श की कन्या की ही पूजा करनी चाहिए। इससे उपर अवस्थावाली कन्या की पूजा नहीं करनी चाहिए। वह सभी कार्यों में निन्द्य मानी जाती है। देवीभागवत 3/26/40-43

पूर्वजों का श्राद्ध न करने के दुश्परिणाम :
- जो लोग श्राद्ध नहीं करते उनके परिवार को पितृ श्राप देते हैं और उनको जीवनभर कश्ट-ही-कश्ट झेलना पडता है। उस परिवार में पुत्र नहीं उत्पन्न होता, कोई नीरोग नहीं रहता, लम्बी आयु नहीं होती, किसी तरह कल्याण प्राप्त नहीं होता और मरने के बाद नरक भी जाना पडता है। विश्णुस्मृति
ब्रहमादिदेव एवं पितृगण तर्पण न करनेवाले मानव के शरीर का रक्तपान करते हैं अर्थात् तर्पण न करने के पाप से शरीर का रक्त शोशण होता है। ’अतर्पिताः शरीरादु्रधिरं पिबन्ति’ -नित्यकर्म पूजाप्रकाश

पित्रु या पूर्वज श्राप देते हैं यदि श्राद्ध के नियम न जानकर उनका श्राद्ध किया जाए :
 श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राहमणों के द्वारा ही होती है। स्कन्दपुराण, नागर. 221/47
 श्राद्ध का भोजन स्त्री को नहीं कराना चाहिए। ..... बृहत्पराशरस्मृति 7/71
 श्राद्ध के अवसर पर ब्राहमण को निमन्त्रित करना आवश्यक है। जो बिना ब्राहमण के श्राद्ध करता है, उसके घर पितर भोजन नहीं करते तथा शाप देकर लौट जाते हैं। ब्राहमणहीन श्राद्ध करने से मनुश्य महापापी होता है। पद्मपुराण, भूमि. 67/29-31

पूर्वजों का श्राद्ध करने मात्र से मनुश्यों को दुखों से मुक्ति तथा धन, संतान, आयु, स्वर्ग यहां तक की मोक्ष तक की प्राप्ति हो जाती है।
ऽ श्राद्ध द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुश्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा स्वर्ग आदि प्रदान करते हैं। पद्मपुराण सृश्टि. 34/217-218
ऽ इस जगत में श्राद्ध से बढकर अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नहीं है, अतः बुद्धिमान् मनुश्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए।
इतना ही नहीं श्राद्ध अपने अनुश्ठाता की आयु को बढा देता है, पुत्र प्रदानकर कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखता है, धन-धान्य का अम्बार लगा देता है, शरीर में बल-पौरूश का संचार करता है, पुश्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार के सुख प्रदान करता है। यमस्मृति, गरूडपुराण, श्राद्धप्रकाश

एकादशी व्रत की विधी नहीं पता होने के कारण लोग व्यर्थ में भूखे मरते हैं :
 एकादशी का उपवास करने बाद द्वादशी के दिन भगवान विश्णु, श्रीकृश्ण या नारायण आदि का पूजन करके ब्राहमणों को भोजन कराना चाहिऐ तब ही व्रत पूर्ण होता है एवं तभी व्रत का पूर्ण फल प्राप्त होता है। -पद्मपुराण 97 कई लोग एकादशी का उपवास करते हैं परंतु उनके जीवन में विशेश लाभ दिखाई नहीं देता क्योंकि वे द्वादशी के दिन भगवान विश्णु की पूजा एवं ब्राहमण भोजन नहीं करवाते तो उन्हें उपवास का पूरा पुण्य नहीं मिलता क्योंकि उनका व्रत पूर्ण होता ही नहीं है।
यदि व्रत का उद्यापन नहीं करो तो व्रत निश्फल हो जाता है :
 जीवन में कितने ही लोग व्रत करते हैं, परंतु व्रत का उद्यापन नहीं कर पाते। व्रत की पूर्णता के लिए उद्यापन अवश्य करना चाहिए, जो ऐसा नहीं करता उसका वह व्रत निश्फल हो जाता है। नंदीपुराण एवं निर्णयसिंधु

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेत्कालिदक्षिणाम्। शतलक्षं प्रजाप्यापि तस्य विद्या न सिध्यति। स शस्त्रघातमाप्नोति सोचिरान्मृत्युमाप्नुयात्।।
भावार्थ :- इस काली कवच को जाने बिना जो कोई भी काली मन्त्र का जप करता है, सौ लाख जप करने से भी उसको सिद्धि प्राप्त नहीं होती, वह पुरूश शीघ्र ही शस्त्राघात से प्राण त्याग करता है। अर्थात् उसकी अकालमृत्यु हो जाती है।
शिश्य के दोश के कारण गुरू को नर्क प्राप्ति :
गुरू को बहुत विचार करके ही किसीको शिश्य बनाना चाहिए, अन्यथा शिश्य के दोश के कारण गुरू नरक में जा सकता है। रूद्रयामल 2/86

गुरू का त्याग संभव :
- जिसके पास एक वर्श तक रहने पर भी शिश्य को थोडे से भी आनंद और प्रबोध की उपलब्धि न हो, वह शिश्य उसे छोडकर दूसरे गुरू का आश्रय ले। -शिवपुराण
किस देवता के मंदिर की कितनी परिक्रमा :
 विश्णु के मंदिर की चार बार, शंकर के मंदिर की आधि बार, देवी के मंदिर की एक बार, सूर्य के मंदिर की सात बार, एवं गणेश के मंदिर की तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। नारदपूराण, पूर्व. 13/136-137

किस देवता के पूजन-पाठ, भक्ति से क्या प्राप्त होता है :
 सूर्य से आरोग्य की, अग्नि से श्री की, शिव से ज्ञान की, विश्णु से मोक्ष की, दुर्गा आदि से रक्षा की, भैरव आदि से कठिनाईयों से पार पाने की, सरस्वती से विद्या के तत्व की, लक्ष्मी से ऐश्वर्य वृद्धि की, पार्वती से सौभाग्य की, शची से मंगलवृद्धि की, स्कन्द से संतानवृद्वि की, एवं गणेश से सभी वस्तुओं की इच्छा या याचना करनी चाहिए। परंतु सावधान बिना गुरू के कोई भी पूजन मनमाने ढंग से नहीं करना चाहिए। लौगाक्षिस्मृति

शुभ मुर्हुत का महत्व :
सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, सवार्थ सिद्धि योग आदि में कोई भी शुभ कार्य किया जाए तो वह अवश्य सफल होता है और उसका अनंत गुना पुण्य मिलता है।
अनर्थकारी होता है अशुभ मुर्हुत में कोई भी शुभ कार्य करना :
ज्योतिश कहता है कि ज्वलामुखी योग में यदि कोई जन्म लेता है तो जीवित नहीं रहता, गृहप्रवेश करता है तो वह घर उजड जाता है, यदि स्त्री चूडा पहने ले तो विधवा हो जाती है, कुंआ खोदो तो पानी नहीं निकलता एवं यदि कोई इस योग में कोई बीमार पड जाए तो फिर कभी ठिक नहीं होता।
निवेदन : मेरा मतलब ये नहीं है कि आप पूजा-पाठ करना छोड दो परंतु जो भी पूजन करो सही तरीके से करो।
कृपया ऐसी पूजन-पाठ किजिए जिससे आपका भला हो नकि पूरा परिवार दुखी होने लग जाए।
बिना मंदिर की परिक्रमा के देवी-देवताओं के दर्शन का पूरा पुण्य नहीं मिलता।

देवी-देवताओं के मंदिरों में दर्शन करने के बाद हमेशा उनके मंदिर की परिक्रमा करनी चाहिए। 99 प्रतिशत लोग मंदिरों में दर्शन करने के बाद परिक्रमा नहीं लगाते। जिसके कारण उन्हे देव-दर्शन का पूरा पूण्य नहीं मिलता। फिर लोग जीवन भर कई मंदिरों में भटकते रहते हैं फिर भी उनके हृदय में शांति नहीं मिलती तथा मनोकामनाऐं भी पूर्ण नहीं होती।
ताबीज, डोरे-धागां का रियेक्शन (हानियां या दुश्परिणाम) :- जिनको बाहरी हवा या भूत-प्रेत शरीर में घुसकर परेशान करते हैं या जो लोग बिमार रहते हैं वे शुरू में डोरे, धागे या ताबीज पहनते हैं। ताबीज, डोरा-धागा बांधने के बाद कुछ समय बाद धीरे-धीरे उनके मंत्रों का असर शुरू होने लगता है जिससे व्यक्ति धिरे-धिरे ठिक होने लगता है परंतु लोग एक ताबीज या डोरा-धागा बांधने के बाद थोडे दिन भी इंतिजार नहीं करते एवं दूसरा डोरा-धागा ताबीज पहन लेते हैं। कई बार आपने देखा होगा कि एक व्यक्ति ही कई ताबीज या डोरे-धागे पहन लेता है यह भयंकर हानिकारक होता है। ऐसा करने से उन्ही डोरे-धागे एवं ताबीजों का रियेक्शन होने लगता है क्योंकि सबके मंत्र धीरे-धीरे एक साथ असर करने लग जाते हैं। कुछ समय बाद उनकी परेशानीयां ओर भी बढ जाती हैं। तथा पीडित या बीमार व्यक्ति और भी ज्यादा पीडाऐं भोगने लग जाता है। सच्चाई तो यह होती है कि भूत-प्रेत या बाहरी हवा उन्हें इतना परेशान नहीं करती जबकी उनके गले, हाथ या कमर में कई तरह के ताबीज तथा डोरे, धागे बंधे होते हैं जो कि देवी-देवताओं के मंत्रों की शक्तियों के होते हैं वे रियेक्शन करने लगते हैं। वही भूत-प्रेत से पीडित व्यक्ति अनेक जगहों पर जाकर इतने डोरे-धागे एवं ताबीज बंधवा लेता है कि जिसके रियेक्शन होने लगता है तथा उसी कारण उसको कुछ दिनों या कुछ महीनों के बाद संभालना या ठिक करना मुश्किल या असंभव हो जाता है।
देवी-देवताओं का स्थान मंदिर होता है ऐसे पित्रुओं का स्थान नदी के घाट होते हैं।
बस सबसे बडी भूल लोग यहि करते हैं कि भगवान, देवी-देवताओं को तो पूजते रहते हैं परंतु पित्रुओं को कोई भी नहीं पूजता। जैसे देवी-देवताओं का पूजन घर में होता है तथा उनसे किसी चीज की मनोकामना हो तो उनके मंदिर जाकर प्रार्थना करते हैं ठिक उसी प्रकार घरों में पित्रुओं का धूप-ध्यान किया जाता है परंतु पित्रुओं के पूजन के लिए उनसे आर्शिवाद लेने के लिए घाटों पर जाया जाता है।
देवी-देवताओं की पूजाओं का मतलब पूर्वजों का पूजन नहीं होता है। हम यही गलती करते हैं कि देवी-देवताओं के मंदिर तो प्रतिदिन या महिनों में कई बार जाते हैं पंरतु पित्रुओं के स्थान जो कि नदी के तटों पर या घाटों पर होता है कभी भी नहीं जाते हैं। प्रतिवर्श हर व्यक्ति को घाट पर जाकर पित्रुओं का पूजन, तर्पण-दान आदि करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करोगे तो कितनी भी पूजन-पाठ कर लो हमेशा दुखी ही रहोगे।
पित्रुओं के श्राप के परिणाम :- विश्णुस्मृति में आता है कि जो लोग श्राद्ध नहीं करते उनके परिवार को पितृ श्राप देते हैं और उनको जीवनभर कश्ट-ही-कश्ट झेलना पडता है। उस परिवार में पुत्र नहीं उत्पन्न होता, कोई नीरोग नहीं रहता, लम्बी आयु नहीं होती, किसी तरह कल्याण प्राप्त नहीं होता और मरने के बाद नरक भी जाना पडता है। कई लोग प्रत्येक अमावस्या, चौदस आदि पर पित्रुओं की प्रसन्नता के लिए धूप-ध्यान आदि करते हैं परंतु उनके घर में क्लेश, झगडे बढते ही जाते हैं बल्कि कम नहीं होते एवं धन की भी भारी हानी होती रहती है एवं कोई घर में कोई भी शुभ कार्य हो तो उस दिन झगडे अवश्य होते है क्योंकि वे उनके पूजन में कई बडी-बडी गलतीयां करते हैं उन्हें पता भी नहीं होता। एवं उनका जीवन दुखमय बन जाता हैं। यदि आपके साथ भी ऐसा हो रहा है तो तुरंत मुझसे संपर्क करें घर में किसी बडी दुर्घटना होने से पहले क्योंकि पित्रुओं के पूजन के भी कुछ नियम होते हैं जो सबको पता नहीं होते।
गुरूदीक्षा लेने के बाद भी लोग दुखी रहते हैं क्यों?
लोग गुरूदिक्षा लेने के बाद भी मन के मंदिर में न झांकते हुए बाहर के मंदिरों में भटकते रहते हैं। भगवान इस दुनिया में कहीं भी नहीं है। यदि भगवान कहीं है तो वह आपके अंदर। सबसे पहले भगवान को अपने अंदर खोजना प्रारंभ कर दीजिए। तब आपको सबमें परमात्मा दिखाई देगा। नहीं तो पूजन-पाठ करने की मजदूरी तो आप बरसों तक करते रहीए फिर भी मन से ईर्श्या तथा द्वेश नहीं जाएगा। जिसने भी भगवान को पाया है पहले अपने अंदर भगवान को प्राप्त किया है। उदाहरण के लिए गौतम बुद्ध, गुरू नानक देव, कबरी दास आदि।
बुरे समय में केवल धीरज, सही मार्गदर्शन एवं ईश्वर की कृपा ही साथ देती है।
आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है बल्कि एक नई समस्या हैं।
परंतु मैं आपसे उदाहरण के द्वारा पूछता हूं कि यदि आपका सिरदर्द बहुत तेजी से हो रहा है तो उस समय आपको अवश्य लगेगा कि सिर को काटकर फेंक दिया जाए तभी शांति मिलेगी। परंतु यदि ऐसी गलती कि तो क्या अगली बार आपको दोबारा सिर मिलेगा। बिलकुल नहीं। समझदारी इसी में है कि केवल सिरदर्द का सही कारण पता लगाकर उसको बंद करने की दवाई खा लि जाए एवं 10 मिनिट आराम किया जाए तो सिरदर्द अच्छा हो जाता है। ठिक इसी प्रकार पंडितजी से मिलकर आप अपने जीवन की समस्याओं के वास्तविक कारणों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं एवं उनके कुछ समय के मार्गदर्शन से ही आपकी सारी समस्याओं के हल हो जाऐगें। जैसे पंखा यदि चलता है तो उसका कारण बिजली ही होती है एवं उसकी पंखुडीयां चारों तरफ घूमती ही रहती है बंद नहीं होती। यदि उसके स्वीच को बंद कर दिया जाए तो कुछ ही क्षणों में पंखा बंद हो जाता है एवं कुछ ही क्षणों में पंखडीयां घूमना बंद हो जाती है। ऐसे ही यदि जीवन में समस्याओं के कारणों को हटा दिया जाए तो फिर समस्याऐं जीवन से अपने आप दूर हो जाती है। उसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पडता है।
गलत दिशा में सोना अर्थात् मौत को जल्दी बुलाना। ( शयन अर्थात् सोने के नियम )
- सदा पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर करके सोना चाहिए। उत्तर या पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से आयु क्षीण होती है तथा शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। विश्णुपुराण 3/11/113
- पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या प्राप्त होती है। दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन तथा आयु की वृद्धि होती है। पश्चिम कि तरफ सिर करके सोने से प्रबल चिंता होती है। उत्तर की तरफ सिर करके सोने से हानि तथा मृत्यु अर्थात् आयु क्षीण होती है। भगवंतभास्कर, आचारमयूख । (कोई भी बीमारी अचानक कभी भी नहीं होती। जिनको बुढापे में लकवा, शुगर या ब्लडप्रेशर आदि की बीमारी होती है उसका मुख्य कारण यहि है कि वे जीवनभर गलत दिशा में सोते हैं एवं धीरे-धीरे जीवनशक्ति का ह्रास होता रहता है, जैसे बूंद-बूंद पानी निकलने से घडा खाली हो जाता है और अंत मे वे लोग बिमारीयों से घिर जाते हैं।)
लक्ष्मीजी के रूठने के कारण।
जिस घर में सब बर्तन इधर-उधर बिखरे पडें हों, बर्तन फूटे हों, आसन फटे हों, स्त्रियां मारी-पीटि जाती हों, वह घर पाप के कारण दूशित होता है। उस घर की पूजा देवता और पितर स्वीकार नहीं करते। महाभारत, अनु. 127/6-7
जो स्त्रियां घर के बर्तनों को सुव्यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोंच-समझकर काम नहीं करती, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमनें-फिरने में रूचि रखती हैं और लज्जा को सर्वथा छोड देती है, उन्हें लक्ष्मी त्याग देती है। महाभारत, अनु. 11/11-12

विश्णु को भी लक्ष्मी त्याग दे यदि
जो मैले वस्त्र धारण करता है, दांतों को स्वच्छ नहीं रखता, अधिक भोजन करता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सोता है, वह यदि साक्षात् विश्णु भी हो तो उसे भी लक्ष्मी छोड देती है। गरूडपुराण, आचार. 114/35
प्रत्येक युग के जो ब्राहमण हैं, उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे ब्राहमण युग के अनुरूप हैं। पाराशरस्मृति 1/33
छोटी-छोटी बात के लिए शपथ नहीं लेना चाहिए। व्यर्थ शपथ लेनेवाला मनुश्य इहलोक और परलोक में भी नश्ट होता है। - स्कन्धपुराण, काशी. पू. 40/153

कौन सा काम सबसे पहले करना चाहिए।
सौ काम छोडकर भोजन करें, एक हजार काम छोडकर स्नान करें, लाख काम छोडकर दान-धर्म करें, करोंडों काम छोडकर भगवान् का स्मरण करें।
पश्चाताप् अर्थात् प्रायश्चित्त से पापों से नाश
मनुश्य पापकर्म करने के बाद यदि उसके लिये सन्ताप या पश्चाताप् करता है तो वह उस पाप से छूट जाता है और फिर कभी मैं ऐसा नहीं करूंगा, ऐसा दृढ निश्चय कर लेता है तो वह पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति 11/230
सेवा करना गौदान करने के बराबर होता है।
थके हुए व्यक्ति को आराम देना, रोगी की सेवा करना, देवता का पूजन करना, ब्राहमणों के पैर धोना तथा जूठन साफ करना - ये कार्य गोदान के समान पुण्यप्रद हैं। - याज्ञवल्क्यस्मृति 1/209

वृद्धजनों, बुजुर्गों की सेवा की महिमा।
नित्य वृद्धजनों को प्रणाम करने से तथा उनकी सेवा करने से मनुश्य की आयु, विद्या बुद्धि, कीर्ति, यश एवं बल बढते हैं। ... मनुस्मृति 2/121
अतिथि का निराश लौटना करना अर्थात् पुण्यों का नाश होना।
जिस घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उसे अपना पाप देकर बदले में उसका पुण्य लेकर चला जाता है। विश्णुस्मृति 67
अनजानें में भयंकर पापों प्राप्ति
गौओं, ब्राहमणों तथा रोगियों को जब कुछ दिया जाता हो, उस समय जो न देने की सलाह देते हैं, वे मरकर प्रेत होते हैं। स्कन्दपुराण, प्रभास. 223/49
भू्रणहत्या करनेवाला अपना अन्न खानेवाले को, व्यभिचारीणी स्त्री पतिको, शिश्य गुरू को, यजमान गुरू को, चोर राजा को अपना-अपना पाप दे देते हैं। मनुस्मृति 8/317
जिस प्रकार मन्त्री का पाप राजा को और स्त्री का पाप पति को प्राप्त होता है, उसी प्रकार निश्चय ही शिश्य का पाप गुरू को प्राप्त होता है। ........... कुलार्णवतन्त्र 11/109, गन्धर्वतन्त्र, स्कन्दपुराण
गर्भपात अर्थात् ब्रहमहत्या का पाप।
ब्रहमहत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात करने से लगता है। इस गर्भपातरूपी महापाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं हैं। ... पाराशरस्मृति 4/20
गर्भपात करनेवाले की अगले जन्म में सन्तान नही ंहोती। वृद्धसूर्यारूणकर्मविपाक 477/1
आत्महत्या करने से दुखों से मुक्ति नहीं मिलती बल्कि दुखों में बढौत्री होती है।
आत्महत्या करने वाला मनुश्य साठ हजार वर्शों तक अन्धतामिस्त्र नरक में निवास करता हैं। पाराशरसमृति 4/1-2
आत्महत्यारे लोग घोर नरकों में जाते हैं और हजारों नरक-यातनाऐं भोगकर फिर देहाती सूअरों की योनि में जन्म लेते हैं। इसलिए समझदार मनुश्य को कभी भूलकर भी आत्महत्या नहीं करनी चाहिए। आत्महत्यारों का न तो इस लोक में और न परलोक में ही कल्याण होता है। स्कन्दपुराण, काशी. पू. 12/12-13
मासीक धर्म वाली स्त्रियों के नियम
पति के कार्यों के लिए तो रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है, पर देवकार्य और पितृकार्य के लिए वह पांचवें दिन शुद्ध होती है। शंखस्मृति 16/17
तीर्थों के दर्शन एवं तीर्थां में स्नान के पुण्यों का वर्णन
जब कोई अपने माता, पिता, भाई, सुहृद् अथवा गुरू को फल मिलने के उद्देश्य से तीर्थ में स्नान करता है, तब उसे स्नान के फल का बारहवां भाग प्राप्त हो जाता है। - अत्रिसंहिता 51
जो दूसरे के धन से तीर्थयात्रा करता है, उसे पुण्य का सोलहवां अंश प्राप्त होता है तथा जो दूसरे कार्य के प्रसंग से तीर्थ में जाता है, उसे उसका आधा फल प्राप्त होता है। - नारदपुराण, उत्तर. 62/37
तीर्थां में किया हुआ पाप भोगना ही पडता है।
अन्य जगह किया हुआ पाप तीर्थ में जाने से नश्ट हो जाता है, पर तीर्थ में किया हुआ पाप वज्रलेप हो जाता है। - स्कन्दपुराण, वैश्णव. मार्गशीर्श 17/17
काशी में मरने का पुण्य घर में मरते समय कैसे प्राप्त हो?
मनुश्य को यदि मरना हो तो जप-ध्यान करते हुए मरना चाहिए। यह मरना काशी में मरने से भी बढकर है।
मूर्खो हि न ददात्यर्थानिह दारिद्रयशडकया।
प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थान् तयैव ननु शडकया।।
भावार्थ :- दान देने से धन घटता नहीं, अपितु निरंतर वृद्धि होती रहती है। उदाहरणार्थ कुएं से पानी निकालने पर उसमें एकत्र जल अधिक गतिशील एवं शुद्ध हो जाता है।
देवाधीनं जगत सर्वम, मन्त्राधिनात च देवता।
तनमन्त्रम ब्राहमणाधीनम, तस्मात ब्राहमण देवता।।

अर्थात् यह संपूर्ण जगत देवताओं के आधिन है, और देवता मंत्रों के आधिन है, मंत्र ब्राहमणों के आधिन है, इसलिए ब्राहमण देवतुल्य होते है। इससे यह सिद्ध होता है कि सारा जगत देवाताओं के आधिन है एवं वे सब कुछ करने में समर्थ है। ऐसे वे शक्तिशाली देवता मंत्रों के आधिन है।
अपात्र और गलत जगह पर दान देने से दुख, परेशानीयां बढती है।
दान के संपूर्ण फल की प्राप्ति सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है, अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखनेवाले को चाहिए कि वह अपात्र को दान न दे। - याज्ञ.स्मृ.आ.
दान सुपात्र को दिया जाए इसका ध्यान रखने की आवश्यकता है। कुपात्र, दुर्व्यसनीको, दुराचारी, को दिया गया दान पुण्य की जगह पापदायक हो सकता है। अपात्र को दिया गया दान पिशाचदान की श्रेणी में माना गया है। कुपात्र को दान देना शास्त्रों में निरर्थक एवं अकल्याणकारी माना गया है।
शास्त्रों में कहा गया है - “कुपात्रदानेशु भवेद् दरिद्री“ कुपात्र को दान देनेसे दूसरे जन्म में दरिद्री होना पडता है। अतः दान देने पर पात्र-अपात्र का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। मेरा उद्देश्य तथा निवेदन
मैं केवल अपना प्रचार नहीं कर रहा हूं। ब्राहमण के छः कर्म होते हैं दान लेना एवं दान देना। पूजन-पाठ करना एवं पूजन-पाठ करवाना। वेदों-शास्त्रों से ज्ञान प्राप्त करना तथा वह लोगों को बताना की जीवन कैसे जीना चाहिए ? मैं वेदों एवं शास्त्रों से जीवन जीने के रहस्यों को समझकर उनमें किस विधि से या किस प्रकार व्यक्ति जीवन यापन करे तो सुखपूर्वक वह रह सकता है वह ज्ञान प्राप्त कर रहा हूं तथा वही ज्ञान लोगों को दे रहा हूं जिसके अभाव में लोग दुखी हो रहे हैं, आत्महत्याऐं कर रहे हैं तथा अकालमृत्यु का ग्रास बन रहे हैं। मैं जो एक ब्राहमण का कर्तव्य होना चाहिए वही निभा रहा हूं। मैं तो कर्ता नहीं हूं सिर्फ निमित्त मात्र हूं। यह देवी कार्य तो सूक्ष्म जगत की शक्तियां मुझे निमित्त बनाकर कर रही है। मुझे सूक्ष्म जगत की शक्तियों से इस देवी कार्य को संपूर्ण भूमण्डल पर फैलाने का आर्शिवाद मिल चका है।